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देवता: वायुः ऋषि: उलो वातायनः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

वा꣢त꣣ आ꣡ वा꣢तु भेष꣣ज꣢ꣳ श꣣म्भु꣡ म꣢यो꣣भु꣡ नो꣢ हृ꣣दे꣢ । प्र꣢ न꣣ आ꣡यू꣢ꣳषि तारिषत् ॥१८४०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

वात आ वातु भेषजꣳ शम्भु मयोभु नो हृदे । प्र न आयूꣳषि तारिषत् ॥१८४०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वा꣡तः꣢꣯ । आ । वा꣣तु । भेष꣢जम् । श꣣म्भु꣢ । श꣣म् । भु꣢ । म꣣योभु꣢ । म꣣यः । भु꣢ । नः꣣ । हृदे꣢ । प्र । नः꣣ । आ꣡यू꣢꣯ꣳषि । ता꣣रिषत् ॥१८४०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1840 | (कौथोम) 9 » 2 » 11 » 1 | (रानायाणीय) 20 » 7 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में १८४ क्रमाङ्क पर पहले व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ वात शब्द से जीवात्मा-सहित प्राण का ग्रहण है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वातः) जीवात्मा सहित प्राण (भेषजम्) औषध को (आ वातु) प्राप्त कराये, जो (नः) हमारे (हृदे) हृदय के लिए (शम्भु) रोगों को शान्त करनेवाली तथा (मयोभु) सुखकारी हो। (नः) हमारे (आयूंषि) आयु के वर्षों को (प्र तारिषत्) बढ़ाये ॥१॥

भावार्थभाषाः -

देह में स्थित जीवात्मा जब पूरक, कुम्भक और रेचन की विधि से शुद्ध वायुमण्डल में प्राणायाम का अभ्यास करता है, तब रक्त की शुद्धि द्वारा रोगशान्ति और दीर्घ आयु प्राप्त होती है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १८४ क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। अत्र वातशब्देन जीवात्मसहचरितः प्राणो गृह्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वातः) जीवात्मसहचरितः प्राणः (भेषजम्) औषधम् (आ वातु) आ गमयतु, यत् (नः) अस्माकम् (हृदे) हृदयाय (शम्भु) रोगशान्तिकरम् (मयोभु) सुखकरं च भवेत्। (नः) अस्माकम् (आयूंषि) जीवनवर्षाणि (प्र तारिषत्) प्रवर्द्धयेत् ॥१॥

भावार्थभाषाः -

देहस्थो जीवात्मा यदा पूरककुम्भकरेचकविधिना शुद्धे वायुमण्डले प्राणायाममभ्यस्यति तथा रक्तशुद्धिद्वारा रोगशान्तिर्दीर्घायुष्यं च प्राप्यते ॥१॥